Friday, 30 November 2018

"नाटक" न्यूनतम समर्थन मूल्य का


"नाटक" न्यूनतम समर्थन मूल्य का
त्योहारों की इस क्रमशः सीढ़ी के साथ ठंड अपनी उपस्थिति का अहसास कराने लगी है.धूप अब थोड़ा सुनहरी हो गयी है,पर इन सब के समानांतर हमारे बीच एक तबका ऐसा भी जिसे न धूप सुहावनी लग है और न ही गुलाबी ठंड की दस्तक.जानते हो कौन है वो? किसान,हाँ वही किसान जिसकी वजह से भारत एक कृषि प्रधान देश है,पर "कृषक" प्रधान नही।
भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 53% हिस्सा कृषि कार्यों में लगा हुआ है या इसी में अपना रोजगार तलाशता है।
खरीफ की फसल कट चुकी है और किसान अपनी अगली फसल बोने की तैयारियों में जुट गए हैं,फलस्वरूप उन्हें खाद,पानी, बीज और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के पैसों की जरूरत हैं तो या तो वो बैंक से लोन ले या अपनी खरीफ की फसल बेच कर अपनी जरूरतों को पूरा करें।
पिछले दिनों सरकार ने फसलों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की थी जिसके अनुसार फसल की खरीद लागत से 50℅ अधिक पर की जाएगी।किसानों को ये सुन थोड़ा राहत मिली,पर अब जब उसे अपनी फसल बेचनी है उसे समर्थन मूल्य एक बेईमानी सी लग रही है। क्योंकि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य है 1750 और उसकी फसल उस दाम पर कहीं बिक नही रही। यहां तक कि सरकारी मंडियों में भी नहीं.अक्टूबर में भारत की सबसे बड़ी दिल्ली की नरेला मंडी में मक्का 1105 -1532 रुपए प्रति क्विंटल की दर से बिका जबकि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 1700 रुपए/क्विंटल है। ज्वार 2450 रुपए की एमएसपी से 2000 रुपए प्रति क्विंटल कम पर बिक रहा है।अरहर का भी यही हाल है एमएसपी 5,675 रुपए है,बिक रही 2750-3200 रुपए प्रति क्विंटल। उड़द का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5600 रुपए प्रति क्विटल है और वो 3050 रुपए प्रति क्विटंल के भाव से बिक रही है।
ऐसे ही तमाम फसलों के खरीद मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य में बड़ा अंतर है।
सरकारों ने समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी,मूल्य तय कर दिया पर फिर भी फसल उससे कम दामों में खरीदी जा रही है,ये सब बाकायदा खुले तौर पर हो रहा है।
मूल्यों का निर्धारण "अंधेर नगरी" वाली कहानी की तरह हो रहा हो रहा है।सरकार ने मंडी की मॉनिटरिंग की ही नही।आढ़ती भी कम दामो में किसान की फसल खरीद रहें है अब या तो किसान उसी दाम पर फसल बेचे या नया लोन ले और कर्ज के बोझ तले दब जाए.फसल का वाजिब दाम न मिलने से शायद उनकी स्तिथि इतनी खराब हो जाये कि उन्हें आत्महत्या करनी पड़े और हम सबको पता तक न चले क्योंकि किसानों की आत्म हत्या के आंकड़े अब सरकार ने निकालना बन्द दिए हैं.अब चुनाव आने को है तमाम राजीनीतिक पार्टियाँ किसान हित की बड़ी बड़ी घोषणाएं अपने घोषणा पत्र में करेंगी,जो अब किसी का "शपथ पत्र" है किसी का "संकल्प पत्र"। किसान के सामने ये पत्र रख दिये जायेंगे किसी विकल्प पत्र की तरह जिसमे से उसी किसी एक का चुनाव करना है,पर वो कितना सही साबित होगा उसका प्रमाण उन मैनिफेस्टो को बनाने वाली पार्टियों की नीतियाँ पहले ही तय कर चुकी होंगी,आजादी के समय भारत की जीडीपी(सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि का योगदान 55% था और वर्तमान में यह घट कर 17% रह गया है। किसानों की वर्तमान स्तिथि की जम्मेदार यही राजनीतिक पार्टियां तो हैं।किसानों को और भी समस्याएं है पर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिल पाना ऐसी समयस्या है जिसका निस्तारण सरकार त्वरित कर सकती है बगैर किसी बड़े प्रयास के।
किसान की राजनीति कर तमाम दलों की राजनीति चमकी,पर वो चमक नेताओं तक ही रही किसान के मुख तक न आ सकी।अन्नदाता कह और महानता के गीत गा-गा कर किसान को उसकी ही व्यथाओं तले ही दाब दिया गया।असल मे हमारे समाज का बर्ताव ही कुछ ऐसा जिसे उसने महान और पूज्यनीय की श्रेणी में रखा है उसी का शोषण का उसकी दुर्दशा कर दी जाती है।
दिल्ली किसान के बारे में कितना सोंचती है इसका अंदाजा आप 2 अक्टूबर की घटना से लगा सकते हैं, किसान के सामने जवान खड़े कर दिए गए उस दिल्ली में घुसने से उसे रोक गया जो कृषि प्रधान देश की राजधानी है।
किसानों की दशा अब भी मुँशी प्रेमचंद की कहानी  "पूस की रात" वाले हल्कू की तरह है जो रात रात भर जाग कर अपनी फसल तैयार करता है पर सही दाम न मिलने के कारण उसे मजबूरन सामान्य बाजार मूल्य(समर्थन मूल्य से कम) पर फसल बेचना पड़ता है।क्योंकि महाजन द्वार पर खड़ा है। आढ़तिये उसकी मजबूरी का फायदा उठा नीलगायों की भांति उसकी आशाओं,आकांक्षाओं और योजनाओं को चर सब चौपट कर जाते हैं..ये सब देख मैं हल्कू के कुत्ते "जबरा" की भांति भौंक रहा हूँ.
पर हल्कू की भी अपनी मजबूरी है वह असहाय है उसके पास अन्य कोई विकल्प नही है।

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